ज़िन्दगी हमसे तेरे नाज़ उठाए ना गए ।
साँस लेनेकी फ़क़त रस्म अदा करते रहे ॥ ’शाज’ तमकवत
जीवना, ऐट तुझी ती आम्हा, सांभाळता आली नाही खरी ।
औपचारिकताच काय ती फ़क्त श्वासांची करत राहीलो पुरी ॥
या रब नहीं मैं वाक़िफ़-ए-रुदाद-ए-ज़िन्दगी ।
इतनाही याद है की जिया और मर गया ॥ ’सीमाब’अकबराबादी
हे ईश्वरा,माझी कसली कहानी अन् कुठून ती दुनियादारी ।
हक़िकत एवढीचं की जगलो काही क्षण अन् मरण दारी ॥
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